दर्दभरी दास्तानों को दोहराते-दोहराते उनकी यह हालत हो गई थी कि दर्द उनके अंदर तक पहुँच गया था और वे संभ्रम की स्थिति में जाने लगे थे। निराशावदी मन:स्थिति से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने अपने करियर के आरंभिक वर्षों में ही लंदन के एक मनोचिकित्सक से संपर्क करके उपचार पूछा तो उन्हें सलाह दी गई कि ट्रेजेडी के साथ ही कॉमेडी फिल्में भी करते रहें।
मेला, शहीद, अंदाज, जोगन, दीदार, दाग, शिकस्त, देवदास उनकी ट्रेजिक फिल्में थीं। डॉक्टर की सलाह पर उन्होंने आजाद, कोहिनूर, आन, नया दौर फिल्मों में खिलंदड़ प्रेमी की भूमिकाएँ निभाईं। 'नया दौर' फिल्म का गीत 'उड़े जब-जब जुल्फें तेरी' युवा दिलीप कुमार का सटीक चित्रण है। दर्शकों का उनके प्रति दीवानगी का यही आलम था।
दाग और आन, देवदास और आजाद, मुगल-ए-आजम और कोहिनूर जैसी विपरीत स्वभाव वाली उनकी फिल्में आमने-सामने ही रिलीज हुई थीं। एक तरफ वे दर्शकों को पीड़ा की सुखानुभूति देते, तो दूसरी तरफ लोगों का मनोरंजन करते। किसी भी नट की यह विवशता ही होती है। अपने साथ वे नाटकीयता का एक तूफान लेकर आए थे। फिल्मों में उनके नए-नए रूप देखकर दर्शक दंग रह जाते थे। अभिनय के प्रति दिलीप कुमार का रवैया सदा पूर्णतावादी रहा। युवावस्था में वे फिल्मों के प्राणाधार होते थे तो अपने दूसरे दौर की प्रौढ़ भूमिकाओं में भी उन्होंने नवीनताएँ दीं।
उन्होंने पूर्णता और श्रेष्ठता के लिए नए मानदंड स्थापित किए। उनके अभिनय में सौंदर्य शास्त्रीय आनंद था। वे अभिनय के हर शिक्षार्थी के लिए प्रेरणा और आदर्श हैं। हर अभिनेत्री उनके साथ काम करने के लिए लालायित रहती थी।
राम और श्याम में उन्होंने डबल रोल किया और बैराग में तीन भूमिकाएँ की। बैराग (1976) के बाद उन्होंने पाँच साल का अवकाश मनाया और मनोज कुमार की 'क्रांति' (1981) से फिल्मों में उनकी वापसी हुई। दिलीप कुमार को अभिनय का मदरसा भी कहा गया।
दिलीप कुमार की पहली फिल्म बॉम्बे टॉकिज की 'ज्वार भाटा' (1944) थी, जिसके मुख्य नायक आगा थे और दिलीप को दूसरे नायक का दर्जा दिया गया था। तीसरी फिल्म 'मिलन' (1946) ने उन्हें सितारे की मान्यता दिला दी। यह फिल्म टैगोर की कहानी 'नौका डूबी' पर आधारित थी और इसका निर्देशन नितिन बोस ने किया था। इसमें दिलीप ने अपनी विशिष्ट और स्वाभाविक शैली में अभिनय किया।
भारत-पाक विभाजन के वर्ष में दिलीप-नूरजहाँ की 'जुगनू' प्रदर्शित हुई। इस फिल्म में मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ ने मोहम्मद रफी के साथ एक गाना गाया था। 'यहाँ बदला वफा का बेवफाई के सिवा क्या है।'
1948 में दिलीप की फिल्मों की मानो
झड़ी लग गई। इस साल उनकी आधा दर्जन फिल्में रिलीज हुईं, जिनमें से तीन फिल्मीस्तान
की थीं - 'नदिया के पार', 'शहीद' और 'शबनम'। 'नदिया के पार' एक गाँव की दुखांत
प्रेमकथा थी। 'शहीद' भी स्वतंत्रता-आंदोलन की पृष्ठभूमि पर बनी दुखांत फिल्म थी।
इसी प्रकार वाडिया की 'मेला' भी मंगेतर को खोने की कहानी थी।
'शबनम' बेशक ट्रेजेडी फिल्म नहीं थी और दिलीप ने इसमें कामिनी कौशल के साथ खिलंदड़ प्रेमी की भूमिका निभाई थी। 'अनोखा प्यार' की विशेषता यह थी कि इसमें नरगिस और नलिनी जयवंत ने पहली बार दिलीप के साथ काम किया। 'घर की इज्जत' गोप और मनोरमा की चुहलबाजी से भरपूर फिल्म थी और दिलीप का इसमें नपा-तुला रोल था।
अंदाज का अंदाजे बयाँ और
1949 में दिलीप की एकमात्र फिल्म 'अंदाज' प्रदर्शित हुई। मेहबूब की इस ट्रेंड-सेटर फिल्म में राज कपूर समानांतर नायक थे। इनकी नायिका थीं आधुनिका नरगिस। इसमें दिलीप ने असफल प्रेमी की भूमिका शिद्दत से निभाई थी। 'अंदाज' में नौशाद का संगीत था और मुकेश के चार स्वर्णिम गीत, जो आज भी लोकप्रिय हैं।
दिलीप कुमार की कुल 15 फिल्मों में नौशाद का संगीत उन फिल्मों की अतिरिक्त विशेषता बन जाता और नौशाद के साथ नाम जुड़ा था- शायर शकील बदायूँनी का। 'अंदाज' ने दिलीप की ट्रेजेडी किंग उपाधि पर अंतिम मुहर लगा दी।
1950 में प्रदर्शित तीन फिल्मों में से एक थी 'बाबुल'। इसमें भी नौशाद का संगीत और तलत मेहमूद का गायन था। दो अन्य फिल्में 'आरजू' और 'जोगन' थीं, जिनमें दिलीप ने भावना-प्रधान दृश्य सूक्ष्मता से पेश किए।
'जोगन' का निर्देशन केदार शर्मा ने किया था और इसे उस जमाने की आर्ट फिल्म कहा जाता है, जिसने सिल्वर जुबली मनाई। यह दिलीप-नरगिस जोड़ी की सर्वश्रेष्ठ फिल्म मानी जाती है। यह भी प्रेम और त्याग की ही कहानी थी। इस फिल्म को एक महीने की रिकॉर्ड अवधि में पूरा कर लिया गया। 'आरजू' ऐमिली ब्रोण्ट की 'विदरिंग हाइट्स' पर आधारित फिल्म थी। इसके नायक के पात्र से दिलीप को बेहद लगाव था। इसकी पटकथा इस्मत चुगताई ने लिखी थी।
1951 में 'दीदार' और 'हलचल' आई। 'दीदार' में दिलीप के साथ अशोक कुमार और नरगिस की भूमिकाएँ थीं। 'हलचल' के. आसिफ ने बनाई थी और बलराज साहनी भी इसमें थे। इस फिल्म से आसिफ से दिलीप के दोस्ताना ताल्लुकात बने, जिसकी वजह से 'मुगले-आजम' जैसी कालजयी कृति भारतीय सिने दर्शकों को प्राप्त हुई।
1952 में दिलीप ने पहली बार मधुबाला के साथ काम किया और दोनों की मोहब्बत शुरू हुई- फिल्म थी 'तराना', जिसमें तलत मेहमूद ने बहुत मीठे गीत गाए थे। इसमें दिलीप ने आँखों के जरिये अभिनय का करिश्मा दिखाया था। 1952 की दो अन्य फिल्में हैं मेहबूब की 'आन' और 'दाग'।
'दाग' का निर्देशन दिलीप के पहले डायरेक्टर अमिय चक्रवर्ती ने किया था। 'नशा मुक्ति' को लेकर बनी यह फिल्म बहुत सुलझे हुए कथानक पर आधारित थी और आज भी प्रासंगिक है। इसमें भी तलत का गायन था। इस फिल्म के लिए दिलीप कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पहला फिल्म फेयर अवॉर्ड मिला।
'शबनम' बेशक ट्रेजेडी फिल्म नहीं थी और दिलीप ने इसमें कामिनी कौशल के साथ खिलंदड़ प्रेमी की भूमिका निभाई थी। 'अनोखा प्यार' की विशेषता यह थी कि इसमें नरगिस और नलिनी जयवंत ने पहली बार दिलीप के साथ काम किया। 'घर की इज्जत' गोप और मनोरमा की चुहलबाजी से भरपूर फिल्म थी और दिलीप का इसमें नपा-तुला रोल था।
अंदाज का अंदाजे बयाँ और
1949 में दिलीप की एकमात्र फिल्म 'अंदाज' प्रदर्शित हुई। मेहबूब की इस ट्रेंड-सेटर फिल्म में राज कपूर समानांतर नायक थे। इनकी नायिका थीं आधुनिका नरगिस। इसमें दिलीप ने असफल प्रेमी की भूमिका शिद्दत से निभाई थी। 'अंदाज' में नौशाद का संगीत था और मुकेश के चार स्वर्णिम गीत, जो आज भी लोकप्रिय हैं।
दिलीप कुमार की कुल 15 फिल्मों में नौशाद का संगीत उन फिल्मों की अतिरिक्त विशेषता बन जाता और नौशाद के साथ नाम जुड़ा था- शायर शकील बदायूँनी का। 'अंदाज' ने दिलीप की ट्रेजेडी किंग उपाधि पर अंतिम मुहर लगा दी।
1950 में प्रदर्शित तीन फिल्मों में से एक थी 'बाबुल'। इसमें भी नौशाद का संगीत और तलत मेहमूद का गायन था। दो अन्य फिल्में 'आरजू' और 'जोगन' थीं, जिनमें दिलीप ने भावना-प्रधान दृश्य सूक्ष्मता से पेश किए।
'जोगन' का निर्देशन केदार शर्मा ने किया था और इसे उस जमाने की आर्ट फिल्म कहा जाता है, जिसने सिल्वर जुबली मनाई। यह दिलीप-नरगिस जोड़ी की सर्वश्रेष्ठ फिल्म मानी जाती है। यह भी प्रेम और त्याग की ही कहानी थी। इस फिल्म को एक महीने की रिकॉर्ड अवधि में पूरा कर लिया गया। 'आरजू' ऐमिली ब्रोण्ट की 'विदरिंग हाइट्स' पर आधारित फिल्म थी। इसके नायक के पात्र से दिलीप को बेहद लगाव था। इसकी पटकथा इस्मत चुगताई ने लिखी थी।
1951 में 'दीदार' और 'हलचल' आई। 'दीदार' में दिलीप के साथ अशोक कुमार और नरगिस की भूमिकाएँ थीं। 'हलचल' के. आसिफ ने बनाई थी और बलराज साहनी भी इसमें थे। इस फिल्म से आसिफ से दिलीप के दोस्ताना ताल्लुकात बने, जिसकी वजह से 'मुगले-आजम' जैसी कालजयी कृति भारतीय सिने दर्शकों को प्राप्त हुई।
1952 में दिलीप ने पहली बार मधुबाला के साथ काम किया और दोनों की मोहब्बत शुरू हुई- फिल्म थी 'तराना', जिसमें तलत मेहमूद ने बहुत मीठे गीत गाए थे। इसमें दिलीप ने आँखों के जरिये अभिनय का करिश्मा दिखाया था। 1952 की दो अन्य फिल्में हैं मेहबूब की 'आन' और 'दाग'।
'दाग' का निर्देशन दिलीप के पहले डायरेक्टर अमिय चक्रवर्ती ने किया था। 'नशा मुक्ति' को लेकर बनी यह फिल्म बहुत सुलझे हुए कथानक पर आधारित थी और आज भी प्रासंगिक है। इसमें भी तलत का गायन था। इस फिल्म के लिए दिलीप कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पहला फिल्म फेयर अवॉर्ड मिला।
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